गर्दिशों के अल्फाज क्या कहूं
इंसानो के रस्मों -रिवाज क्या कहूं
उलफत ए कसक सरे बाजार रही
समग्र बंधनो के पार रही
. फिर क्या जाति क्या
अवस्थाएं
जायज है सब, जो भी हों
व्यवस्थाएँ
इज्जत ए नुमांइदगी जब घर को
निकली
जाति-धर्म, लोक - लाज पर
फिसली
पर्दे पीछे हुए कत्लेआम क्या कहूं
किस पर लगे इल्जाम क्या-कहूं
बेगुनाही पर गुनहगारों की
दावेदारी रही
प्रताड़ित शख्सियत हुई
जिसकी वफादारी रही
गालिब हर गली में चोर है
झूठी शान ए शोकत का शोर है।
चिंतनीय है, गौर कर
ऐसा आलम चहूं और कर
भेद ना रहे, घर और बाजार में
उत्पीड़ित ना हो, कोई किसी.
आकार मे
मजहबी इनायतो के तालुकात.
क्या कहूं
इंसानी जज्बातों की हो मुलाकात
क्या कहूं।
✍️Seema choudhary
इंसानो के रस्मों -रिवाज क्या कहूं
उलफत ए कसक सरे बाजार रही
समग्र बंधनो के पार रही
. फिर क्या जाति क्या
अवस्थाएं
जायज है सब, जो भी हों
व्यवस्थाएँ
इज्जत ए नुमांइदगी जब घर को
निकली
जाति-धर्म, लोक - लाज पर
फिसली
पर्दे पीछे हुए कत्लेआम क्या कहूं
किस पर लगे इल्जाम क्या-कहूं
बेगुनाही पर गुनहगारों की
दावेदारी रही
प्रताड़ित शख्सियत हुई
जिसकी वफादारी रही
गालिब हर गली में चोर है
झूठी शान ए शोकत का शोर है।
चिंतनीय है, गौर कर
ऐसा आलम चहूं और कर
भेद ना रहे, घर और बाजार में
उत्पीड़ित ना हो, कोई किसी.
आकार मे
मजहबी इनायतो के तालुकात.
क्या कहूं
इंसानी जज्बातों की हो मुलाकात
क्या कहूं।
✍️Seema choudhary
Very nice poem
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